सतगुरु नानक वाणी में आये काव्य रसों की व्याख्या
रस भरे वाक्यों से ही कविता बनती है। इस लिए रसपूर्ण कविता कई प्रकार के रसों से युक्त होती है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में ( उर्दू ग़ज़ल से बहुत पहले) अत्यंत उच्च कोटि की कविता लिखी गई और उत्तम साहित्य की रचना हुई, जिसके विषय में हम भारतवासी ही भूल गए हैं, औरों की क्या कहें ? क्योंकि हम भारतवासियों में आत्म -सम्मान नहीं है। हमें इंग्लैंड के निवासी शेक्सपियर का नाम और नाटक तो याद हैं, परन्तु भारतीयों को कालिदास का नाम और उसके नाटकों के विषय में जानकारी नहीं। क्योंकि हम आज भी इंग्लैण्ड के गुलाम हैं।
सर्वप्रथम भरत मुनि ने रस व्याख्या की थी। भरत मुनि की रस व्याख्या को आधार मानकर ही आगे और विद्वानों ने व्याख्या की है। कई विद्वान उसके साथ पूर्ण रूप से सहमत नहीं हैं। छंद,अलंकार और रस भारतीय काव्य के आवश्यक व अटूट अंग हैं। कविता पढ़ कर या सुनकर और वक्ता के हाव-भाव देखकर जो आनंद आये, वही कविता का 'रस' है। 'रस' ही कविता का वास्तविक सार होता है। कुछ रस लम्बे समय तक रहते हैं परन्तु कुछ कम समय के लिए ही रहते हैं। जैसे क्रोध, शोक, ग्लानि आदि लम्बे समय तक नहीं रहते।
"नानक सायर एव कहित है" नानक शायर ने, 'नानक वाणी' में सभी रस लिखकर इस वाणी को रस भरपूर बना दिया है। यदि इन रसों का हमें ज्ञान हो जाये तो रस-भरी गुरु नानक वाणी का रस, हमें भी रस के आनंद से आनंदविभोर कर देगा। आइए हम भी कविता के रसों के बारे में ज्ञान हासिल कर, रस भरी वाणी का रसास्वादन करना आरम्भ करें।
संगीत और काव्य शास्त्र का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर के ही गुरु वाणी सही रूप से पढ़ी, गाई तथा समझी जा सकती है। संगीत की विशेषता है कि संगीत भक्ति-भाव को प्रचंड करता है। भक्ति भाव से भीगी हुई, भक्ति मार्ग की रचना, भक्ति संगीत में रचित है तथा रागों में गायन करने के लिए, रागों में उच्चारण की हुई गुरु-वाणी, मुख्य रूप से संगीत पर आधारित है।
सतगुरु नानक देव जी ने अपने आप को शायर यानि कवि माना है। कवि रूप में गुरु जी ने कविता की रचना की है। जिसमें से ९४७ / 947 श्लोक / शब्द श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में अंकित हैं। यह अति उत्तम कविता रूपी वाणी, छंद-बद्ध काव्य रसों के साथ परिपूर्ण है और संगीतमई है। इस मनोहर वाणी का रसास्वादन करने हेतु सभी 'गुरु नानक नाम लेवा' को संगीत और काव्य शास्त्र का ज्ञान होना अत्यावश्यक है।
आश्चर्य और खेद का विषय यह है कि सिक्ख पंथ को भी गुरु वाणी में प्रयुक्त काव्य रसों के बारे में ज्ञान नहीं है और कभी इस विषय पर उन्होंने सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझी। परन्तु, सदैव ही हिन्दुओं का विरोध, सभी सिक्ख - सम्प्रदायों का विरोध किया तथा आपस में ही लड़ने पर सम्पूर्ण शक्ति और समय लगा दिया। कीर्तन-प्रथा प्रचलित होने के कारण ३१ /31 रागों के बारे में तो कुछ खोज हुई है एवं कुछ सिक्खों को स्वर-ज्ञान भी है। परन्तु, काव्य शास्त्र में वर्णित रसों के विषय में सिक्ख, सर्वथा अनभिज्ञ हैं। गुरु वाणी में वर्णित काव्य रसों के बारे में सिक्ख विद्वानों को शोध करके लिखने की आवश्यकता है। जगत गुरु जी की सर्वप्रिय वाणी "जपु जी साहिब" में ही कई प्रकार के छंद और काव्य रस हैं। परन्तु सिक्ख विद्वानों ने कभी इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। भले ही 'जपु जी साहिब' के सैंकड़ों सटीक हो चुके हैं तथा कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है किन्तु जपु जी साहिब के छंदों या काव्य रसों के बारे में कभी किसी ने कोई व्याख्या करने की चेष्टा नहीं की। विचारणीय बात यह है कि सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली वाणी 'जपु जी साहिब ' और गाई व सुनी जाने वाली 'आसा दी वार' में प्रयुक्त काव्य रसों के सम्बन्ध में ही यदि सिक्ख समुदाय को ज्ञान नहीं तो अन्य किस वाणी के विषय में होगा ?
सतगुरु नानक देव जी की वाणी के काव्य पक्ष को उजागर करने के लिए उनकी वाणी में से रसों के विषय में अत्यंत संक्षिप्त जानकारी आपके लिए प्रस्तुत है। प्रेमी पाठकों को काव्य शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त अर्थ समझ कर, रस का नाम स्वयं ही जानने की आवश्यकता है। काव्य रसों को समझकर ही हम गुरु वाणी में वर्णित रसों का रसास्वादन कर सकेंगे।
काव्य शास्त्र में कविता के नौ रस सर्वमान्य हैं, जिन के नाम इस प्रकार हैं ( श्रृंगार रस, हास्य रस, करुणा रस, रौद्र रस, वीर रस, भयानक रस, वीभत्स रस, अद्भुत रस, शांत रस ) परन्तु भक्ति मार्ग के कुछ विद्वानों के अनुसार केवल पांच रस मान्य हैं, जिन में से दो रस 'शांत' और 'श्रृंगार' तो पहले नौ में ही आ जाते हैं बाकी तीन ये हैं; दास रस, वात्सल्य रस और सखा रस। इस तरह कुल काव्य रसों की संख्या १२ /12 हो जाती है। कुछ विद्वानों ने भक्ति को भिन्न रस माना है। यदि भक्ति को भी रस मान लिया जाए तो इसे मिलाकर रसों की कुल संख्या १३ /13 हो जाती है। विद्वानों ने सभी रसों का राजा 'श्रृंगार रस' को माना है।
काव्य रसों के उदाहरण :-
१. श्रृंगार रस :- कामयुक्त ( इश्क मजाज़ी ) प्रेम भाव। जो नर और मादा के श्रृंगार करने, श्रृंगार को देखने और सुनने से उत्पन्न हो, उसे श्रृंगार रस कहते हैं। इसका का स्थाई भाव 'कामेच्छा' है।
नैन सलोनी सुंदर नारी। खोड़ सीगार करै अति पिआरी। दर घर महला सेज सुखाली। अहिनिसि फूल बिछावै माली।
( राग गौड़ी, पन्ना २२५ / 225 )
२. हास्य रस :- किसी कारण प्रसन्नता पूर्वक हंसी आना। इसको हास्य - रस कहते हैं। इसका स्थाई भाव 'हंसी' है।
वाइनि चेले नचनि गुर। पैर हलाइनि फेरन्हि सिर। उडि उडि रावा झाटै पाइ। वेखै लोकु हसै घरि जाइ।
( राग आसा, पन्ना ४६५ /465)
३. करुणा रस :- अपनी इच्छा के विरुद्ध कोई हृदय विदारक घटना घटित होने के कारण जो दुखदाई अवस्था उत्पन्न होती है या किसी को दयनीय अवस्था में देखकर, सुनकर, मन में जो करुणा का भाव उमड़ता है उसे 'करुणा-रस' कहते हैं । इसका स्थाई भाव 'शोक' है।
जिन सिरि सोहनि पटीआ मांगी पाइ सन्धूरु। से सिर काती मुंनीअन्हि गल विच आवै धूड़ि। महला अंदरि होदीआ हुणि बहणि न मिलन्हि हदूरि ( राग आसा, पन्ना ४१७ / 417)
४. रौद्र रस:- किसी के द्वारा मन या तन को किसी भी प्रकार का आघात पहुँचने के कारण, उसके प्रति मन में जो प्रतिशोध की भावना उपजती है , उसे 'रौद्र रस' कहते हैं। इसका स्थाई भाव 'क्रोध' है।
मुगल पठाणा भई लड़ाई रण महि तेग वगाई।। ( राग आसा, पन्ना ४१८ / 418)
५. वीर रस :- किसी विशेष प्रयोजन से किसी कार्य को प्रसन्नता तथा उत्साह से करने की तीव्र इच्छा को 'वीर रस' कहा जाता है। इसका स्थाई भाव 'उत्साह' है।
लख सूरतण संगराम रण महि छुटहि पराण।। ( राग आसा, पन्ना ४६७ / 467 )
६.भयानक रस:- किसी डरावने दृश्य, घटना या प्राणी को देखकर, उसके बारे में पढ़ कर, सुन कर, जो भय का भाव मन में उत्त्पन्न हो , उसे भयानक रस कहा जाता है। इसका स्थाई भाव 'भय' है।
मम सर मूइ अजराईल गिरफतह दिल हेचि न दानी।। (राग तिलंग, पन्ना ७२१ / 721)
७. वीभत्स रस :- किसी घृणित वस्तु या घटना को देखकर या उसके बारे में सुन कर, पढ़ कर, जो घृणा का भाव उपजे , उसे वीभत्स रस कहा जाता है। इसका स्थाई भाव 'घृणा' है।
रतन विगाड़ि विगोए कुतीं मुइआ सार न काई।। ( राग आसा, पन्ना ३६० / 360)
८. अद्भुत रस:- किसी अलौकिक दृश्य को देखकर या पढ़-सुन कर आश्चर्य का जो भाव मन में उपजे, उस भाव को 'अद्भुत रस' कहते हैं। इसका स्थाई भाव 'आश्चर्य' है।
आदि सचु जुगादि सचु। है भी सचु नानक होसी भी सचु ।। ( जपु जी, पन्ना १ /1)
९. शांत रस :- विचार करने पर इस नश्वर संसार के प्रति जो विरक्त भाव उपजता है उसे 'शांत रस' कहते हैं। इसका स्थाई भाव 'वैराग्य' है। सुंन समाधि रहहि लिव लागे एका एकी सबदु बीचार ।। ( राग गौड़ी, पन्ना ५०३ / 503 )
१०. वात्सल्य रस :- प्रभु की ओर से अपने भक्तों के प्रति अपना कर्तव्य निभाते हुए प्यार करने के भाव को, भक्तों की रक्षा करने के भाव को (असीम अनुकम्पा का जो भाव उमड़ता है) वात्सल्य रस कहते हैं। इसका स्थाई भाव 'कर्तव्य अधीन प्रेम' है।
भगति वछलु भगता हरि संगि। नानक मुकति भए हरि रंगि ।। ( राग आसा, पन्ना ४१६ /416)
११. दास रस :- अपने ईष्ट के प्रति भक्ति भाव सहित विनम्रता बनाये रखने के भाव को 'दास रस' कहते हैं। इसका स्थाई भाव 'नम्रता' है।
प्रणवति नानकु दासनि दासा दइआ करहु दइआला।। ( राग बसंत, पन्ना ११७१ /1171)
१२. सखा रस :- प्रेमाभक्ति में लीन हो कर अपने इष्ट को अपना सखा या मित्र मानने के भाव को 'सखा रस' कहते हैं। इसका स्थाई भाव इष्ट में 'मीत भाव' है। जो तुधु सेवहि से तुध ही जेहे निरभउ बाल सखाई हे।। ( राग मारु, पन्ना १०२१ / 1021)
१३.भक्ति रस :- कुछ पढ़ कर, सुन कर अथवा देख कर मनुष्य के मन में निष्ठा, प्रेम तथा सत्कारपूर्वक अपने आराध्य के प्रति जो सेवा या उपासना का भाव जन्म लेता है, उसे भक्ति रस कहते हैं। इसका स्थाई भाव 'श्रद्धा' है।
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